विजय शुक्ला।

महाराष्ट्र में अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का जो सपना भाजपा दशकों से देखती चली आ रही थी; वह आज आखिरकार  पूरा हो गया है।  भाजपा ने विधानसभा चुनाव में अविस्मरणीय विजय प्राप्त की है।  तो क्या इस महाविजय के बाद वह अपने सहयोगी दलों खासकर शिवसेना के  मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को उतना भाव देगी, जितने की अपेक्षा पाले  वह चल रहे हैं।  उद्धव ठाकरे की शिवसेना से अलग होकर एकनाथ ने भाजपा के साथ मिलकर जब सरकार बनाई थी तब उनकी शर्त यह थी की चूंकि उनके पास ज्यादा विधायक हैं इसलिए मुख्यमंत्री वही बनेंगे।  उससे कम उन्हें तब कुछ मंजूर नहीं था।  उन दिनों भाजपा की सीट संख्या कम थी इसलिए उसने एकनाथ को समर्थन देकर इसी बात से संतोष कर लिया की कम से कम महाराष्ट्र की सत्ता से वह उद्धव ठाकरे व कांग्रेस को दूर करने में सफल हुई।  लेकिन इस बार के चुनाव नतीजे एकनाथ शिंदे की मंशा से उलट हैं।  अब भाजपा राज्य में सबसे बड़ा दल है और  विधायकों की संख्या 135 से अधिक है।  जबकि शिंदे गुट की विधायक  संख्या 57 है।  भाजपा पूर्ण बहुमत पाने के करीब है।  कायदे से उसे अब किसी सहयोगी दल की सरकार बनाने के लिए जरूरत भी नहीं है, फिर भी वह अपने गठबंधन धर्म का पालन करने से पीछे नहीं हटेगी । वह हमेशा ऐसा करती आई है।  लेकिन क्या एकनाथ शिंदे भाजपा शीर्ष नेतृत्व से दोबारा मुख्यमंत्री बनने का मौका ले पाएंगे । 
 गठबंधन धर्म के अनुसार 
मुख्यमंत्री पद पर पहला अधिकार भारतीय जनता पार्टी का है।  एकनाथ शिंदे खुशी से इसके लिए  तैयार नहीं होंगे।   चुनाव परिणाम आने के बाद ही उन्होंने कहा है कि यह चुनाव उनके चेहरे पर लड़ा गया है और कोई भी दल ज्यादा सीटें जीते तो यह मुख्यमंत्री पद का फार्मूला नहीं हो जाता । यानी मुख्यमंत्री बनने की तृष्णा रूपी  लड्डू उनके भीतर भी है।  हालांकि अब वह उस स्थिति में नहीं है कि कोई दबाव भाजपा पर बना पाएं।  इसलिए उनकी भलाई इसी में होगी  कि स्वयं को मुख्यमंत्री की दावेदारी से हटा लें।  दूसरा बड़ा प्रश्न यह है कि क्या अपनी सरकार में वर्तमान  उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाए जाने के निर्णय का शिंदे समर्थन करेंगे; जिनसे उनकी आंतरिक आदावते होती रही हैं।  फडणवीस ने कई बार शिंदे को तकलीफ पहुंचाई है।  एकनाथ के स्वभाव को देखकर इसकी संभावना कम लगती है कि वे देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री  बनाए जाने के पक्ष में रहें।  दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने का प्रबल दावेदार होकर भी फडणवीस के लिए यदि सबसे बड़ी कोई फांस है तो वह एकनाथ शिंदे ही होंगे।  संघ पृष्ठभूमि से भी देखा जाए तो कसौटी पर भी फडणवीस आगे हैं।  उन्हें मुख्यमंत्री बनाये जाने के मामले में उनके विरोधी सक्रिय हो गए हैं। एनडीए के सहयोगी और उपमुख्यमंत्री अजीत पवार  को नई सरकार में क्या मिलेगा यह भी देखने वाली बात है।  संभव है अजीत को उपमुख्यमंत्री पद ही दे दिया जाए । उनके दल एनसीपी को 41 सीटों पर जीत मिली है।   एनडीए गठबंधन के तीसरे बड़े सहयोगी होने के नाते उन्हें महत्व तो मिलेगा पर कितना इस पर चर्चा जरूर होगी।  भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी राय अवश्य लगा।  अजीत पवार फडणवीस को मुख्यमंत्री पद के लिए समर्थन देंगे इसकी संभावना भी कम ही लगती है । दरअसल, पहली बार शरद पवार से तोड़कर उन्हें एनडीए में लाने वाले फडणवीस ही थे।  हालांकि तब कुछ समय बाद ही अजीत  वापस अपने चाचा शरद के पास लौट गए थे । इस घटनाक्रम से फडणवीस से हाईकमान नाखुश था। 
 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी  जीत पर  फोन करके बधाई तो दी है पर क्या वे उस घटनाक्रम को भूल गए होंगे।  फिर लौटते हैं  एकनाथ शिंदे की नई सरकार में उनकी भूमिका पर। 
 फडणवीस के नाम पर एकनाथ शिंदे तैयार हो भी गए तो वह स्वयं उपमुख्यमंत्री का पद हरगिज़ नहीं लेंगे।  इस स्थिति में संभव है कि वह सरकार को बाहर से समर्थन देने की बात कहने लगें या अपने  करीबी को उपमुख्यमंत्री का पद देने की सिफारिश करने के साथ ही मंत्रिमंडल में छः से आठ पद की मांग करें। शीर्ष नेतृत्व एकनाथ शिंदे को खोना नहीं चाहेगा क्योंकि दशकों बाद वह उद्धव और कांग्रेस के गठजोड़ को फेल कर मराठा एवं गैर मराठा मतदाताओं को साधने में सफल हुआ है । बड़ा प्रश्न है - भाजपा  का क्या फार्मूला होगा ?  संभव है उपमुख्यमंत्री पद ठुकराने पर  वह एकनाथ शिंदे को राज्यसभा होते हुए केंद्रीय कैबिनेट का प्रस्ताव देकर उन्हें देवेंद्र फडणवीस के नाम पर राजी करे।  बस यही पेंच फसेगा।  अजीत पवार के साथ ऐसी स्थिति नहीं है।  वह जानते हैं की बड़ी मुश्किल से हजारों करोड़ के सिंचाई घोटाले में क्लीन चिट मिली है।  वही बहुत है।  उप मुख्यमंत्री का पद मिल जाए वह बोनस है।  हां, तीन- चार मंत्री उनके कोटे से हो जाएं, वह ऐसी इच्छा जरूर रखेंगे।  कुल मिलाकर एकनाथ शिंदे ही वह बड़ा पेंच हैं  जो देवेंद्र फडणवीस को उपमुख्यमंत्री बनने से रोक रहे है।  यह भी सच है कि वे वर्तमान में उस स्थिति में नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर दबाव बनाने और अपनी मनवाने की स्थिति में हो।  लेकिन अपने सम्मान की दुहाई देकर लड़ाई तो लड़ ही सकते हैं।  भाजपा उनके कोटे में विधानसभा अध्यक्ष का पद भी नहीं देगी।   चार-पांच मंत्री पद दे सकती है।  सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार तीन दिन के भीतर महाराष्ट्र में नई सरकार गठित करनी होगी अन्यथा राष्ट्रपति शासन की आहट शुरू।   महाराष्ट्र की जीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक  प्रभावशाली नारे "एक है तो सेफ हैं " को चुनाव समीकरणों को बदलने में गेम चेंजर कहां जा सकता है। इस नारे ने मतदाताओं को सनातन एवं सांस्कृतिक राष्ट्र बोध  कराया है ।  मतदाताओं ने एक बार फिर मोदी के करिश्माई नेतृत्व पर विश्वास किया है।  "एक है तो सेफ है"  के  नारे ने इंडिया गठबंधन द्वारा फैलाए जा रहे नैरेटिव को मतदाताओं में सेट ही नहीं होने दिया।  लोकसभा चुनाव में भाजपा को महाराष्ट्र में नुकसान हुआ जिससे उसने सबक लेकर रणनीति तैयार की।  विधानसभा चुनाव में भाजपा को अपार जन समर्थन मिला है। उसने 149 सीटों पर चुनाव लड़ा और 132 पर जीत दर्ज की। इस महाविजय के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लाखों स्वयंसेवकों की दिन- रात मेहनत भी एक वजह रही।  मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने भी  लोकसभा चुनाव से सबक लेकर विधानसभा की तैयारी में कड़ी मेहनत की है। फिर भी परिणाम बताते हैं कि लोग उनसे खुश नहीं हैं।  उन्होंने एनवक्त पर   मप्र की लाडली बहन योजना अपने राज्य में चलाई, जिससे विपक्ष को सोचने का मौका ही नहीं मिला।  राहुल गांधी और उनकी टीम सोशल मीडिया ट्रोल पॉलिटिक्स पर ही चुनाव लड़ते रहे।  संविधान खतरे में है, जातिगत जनगणना जैसे भ्रामक झांसे में मतदाता अबकी बार नहीं आया । कांग्रेस नेतृत्व वाले महाविकास आघाडी गठबंधन  पक्ष में वोट देने के फतवे मुसलमानों को भले लाम बंद करने में कम कारगर रहे, लेकिन इसने गैर मुस्लिम मतदाताओं को एकजुट करने में बड़ी मदद की। जम्मू कश्मीर की तरह झारखंड में मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में बनी सरकार को लेकर कांग्रेस खुश होने का दिखावा करे लेकिन वह जानती है कि वह झारखंड में कुछ नहीं कर पाई है।  भाजपा के यहां कमाल न दिखा पाने की सबसे बड़ी वजह यदि कहीं जाए तो चुनाव के दौरान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ की गई  ईडी  एक्शन तथा उनकी गिरफ्तारी थी, जिसने  आदिवासियों के मन में हेमंत के प्रति गहरी सहानुभूति पैदा कर दी।  कदाचित इससे ही  भाजपा के चुनावी दाव उलट आए।  राहुल गांधी को अपनी सनसनी फैलाने वाली और सोशल मीडिया पर छाने वाली  मानसिकता से बाहर आना होगा।  वह ट्रोल आर्मी के सहारे चुनाव नहीं जीत सकते। कांग्रेस चुनाव लड़ना भूल चुकी है।  आज उसकी स्थिति एक जलते हुए जहाज जैसी हो गई है। दुर्भाग्य से राहुल उसके खेवनहार हैं।  उनके  पास कोई विजन नहीं है।  वह भटके हुए उस मुसाफिर की तरह हैं, जिसे दिन में दिखाई नहीं देता।  नोट कर लीजिए। आगे गुजरात में भी कांग्रेस का हश्र यही होने वाला है । करोड़ों लोगों को रोजगार देने वाले कारोबारियों को गाली देकर वे  मजदूरों के मसीहा नहीं बन सकते हैं।  महाराष्ट्र के नतीजे उद्धव ठाकरे के लिए भी एक बड़ा सबक है।  अपने पिता स्वर्गीय बाला साहब ठाकरे की स्वर्णिम विरासत को वे संभाल नहीं सके।  उल्टा उसे मिट्टी में मिला बैठे।  राष्ट्र और राम द्रोहियों से हाथ मिलाने का अंजाम यही होगा।  गांधी परिवार का फोकस महाराष्ट्र चुनाव से ज्यादा केरल की वायनाड लोकसभा उपचुनाव सीट पर शुरू से ही था   राहुल की बहन प्रियंका यहां प्रत्याशी थीं, जिनकी जीतने  की पहले दिन से गारंटी थी।  फिर भी कांग्रेस द्वारा वायनाड में सबसे अधिक ताकत झोंकी गई ।  महाराष्ट्र चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी सुपर फ्लॉप लीडर हो गए हैं। यह जनता ने जनादेश देकर बता दिया है।    महाराष्ट्र के नतीजे सनातन के पुनर्जागरण और उन्वान पर जाने का जनादेश भी है।  भारत में विपक्षी दल मजबूत होना चाहिए लेकिन जब विपक्ष राष्ट्रीय मुद्दों को छोड़कर देश विरोधी अभियान चलाएगा तो भारत की जनता उसका ऐसा ही हाल करेगी। 
और अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह समेत पूरी भाजपा यही चाहेगी की महाराष्ट्र में एक स्थिर सरकार चले। सहयोगी दलों से किसी प्रकार की कोई खटपट ना हो।  ऐसी स्थिति में इस बात की भी संभावना है कि किसी नए चेहरे को मुख्यमंत्री बनाने का चौंकाने वाला निर्णय ले लिया जाए।  जैसा की मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री चयन में देखने को मिला है। केंद्रीय मंत्री नितिन गड़करी भी चौकाने की पूरी कोशिश करनी चाहेंगे। संघ उनके लिए हमेशा तैयार है। फड़नवीस को रोकने एकनाथ और अजीत गड़करी के नाम पर सहमत हो सकते हैं। 

लेखक  विजय मत के एडिटर इन चीफ हैं। 

न्यूज़ सोर्स : विजय मत